गुरु - पूर्णिमा
दक्षिणामूर्ति - विश्वगुरु
वटविटपि समीपे भूमि भागे निषण्णं,सकलमुनिजनानां ज्ञानदातारमारात्। त्रिभुवनगुरुमीशं द्क्षिणामूर्ति देवं जन्ममरण दुःखच्छेददक्षं नमामि।।
मैं प्रणाम करता हूँ श्री दक्षिणामूर्ति को जो कि तीनों लोकों के गुरु हैं और दक्षतापूर्वक जन्ममरण के इस बंधन को समाप्त करने वाले हैं
जो की एक विशाल बरगद के वृक्ष के नीचे बैठकर ज्ञान का प्रकाश मुनियों को प्रदान कर रहे हैं
दक्षिणामूर्ति के स्वरूप में करुणा है और जहां करुणा का भाव होता है, वही देने के लिए भी आतुर होता है वह द्रव्य के रूप में भी हो सकता है अथवा ज्ञान के रूप में भी
दक्षिणामूर्ति का अर्थ है जो दक्षिण दिशा को देख रहा हो । यहाँ इस स्वरूप के माध्यम से दिशाओं के रहस्य एवम् महत्व को समझाया गया है । जब गुरु का मुख दक्षिण की ओर होगा, तभी मुनीजन (शिष्य) का मुख उत्तर की ओर होगा ।
चंद्र, बुध एवम् वृहस्पति तीन शुभ ग्रह का प्रभावक्षेत्र उत्तरदिशा है। वृहस्पति को देव गुरु भी कहते हैं। शिष्य या साधक या श्रोता जब उत्तराभिमुख होकर साधना करेगा, तब चुम्बकीय शक्ति के प्रवाह से उसके अंदर मेधा, श्री एवं ओजस का संचार होगा। ‘शारदातिलक’ आदि ग्रंथों में भगवान शिव के दक्षिणामूर्ति स्वरूप की साधना में मेधा, श्री आदि के लिए भिन्न भिन्न मंत्र प्राप्त होते हैं। भगवान शिव के अरघे का मुख भी उत्तर की ओर होता है। ईशान ( उत्तर-पूर्व का कोना) “गुरु देवो महेश्वर:” का है और भगवान शिव का वह स्वरूप जिसमे एक विशाल बरगद के वृक्ष के नीचे बैठकर समस्त मुनियों द्वारा पूजित होकर उन्हें विभिन्न प्रकार का ज्ञान प्रदान कर रहे हैं।
उनका दाहिना पैर एक असुर के ऊपर है, असुर अविद्या सूचक है । ऋषि अगस्त्य से लेकर आदिगुरु शंकराचार्य तक ने अपनी स्तुतियों में दक्षिणामूर्ति स्वरूप का महिमामंडन किया है। भगवान शिव जो तीनों लोकों के गुरु हैं, समस्त विद्याओं के ज्ञाता और अधिष्ठाता हैं। जो योग, आयुर्वेद, संगीत, नृत्य, ज्योतिष और तंत्र के सिध्दांतो के रचियता हैं, उनके ज्ञान के प्रकाश को फैलाने वाले इस रूप को “ दक्षिणामूर्ति” कहते हैं। गुरु अथवा ईश्वर के दक्षिणामुखी होकर उपदेश देने के समय दक्षिण दिशा के अधिष्ठात्र (स्वामी) यमराज भी शिष्यवत अर्थात् शासन में रहते हैं।
शुभम् सर्वानंद